
श्री श्री स्वामी चिदानन्द गिरि जी, योगदा सत्संग सोसाइटी ऑफ़ इण्डिया/सेल्फ़-रियलाइज़ेशन फ़ेलोशिप के अध्यक्ष एवं आध्यात्मिक प्रमुख हैं। हम उनका स्वागत करते हैं और श्री अतुल दयाल जी ने उनका साक्षात्कार नोएडा स्थित योगदा आश्रम में स्वामी जी के प्रवास के दौरान लिया।
अतुल दयाल: स्वामीजी प्रणाम।
स्वामी जी : प्रणाम, आज यहाँ आप से मिलना मेरे लिए आनन्द का विषय है।
अतुल दयाल: धन्यवाद स्वामीजी, मेरा पहला प्रश्न यह है कि, योग क्यों महत्वपूर्ण और अनिवार्य है?
स्वामी जी : योग क्यों महत्वपूर्ण अथवा अनिवार्य है? यह एक सुन्दर प्रश्न है। मैं आपको बताता हूँ कि क्यों है, क्योंकि योग एक विज्ञान है, यह एक सटीक पद्धति है, एक सुनियोजित क्रमबद्ध प्रणाली है जिसके द्वारा हम अपने अस्तित्व की गहराई में छिपे उन दिव्य गुणों को प्रकट करने की सक्षमता प्राप्त करते हैं जो हमारी आत्मा की वास्तविक प्रकृति है। तथा, इसके बिना, जीवन में एक सच्चे सन्तुलन, सच्ची सफलता, सच्ची संतुष्टि को प्राप्त करने की सम्भावना अत्यल्प होती है। क्योंकि व्यक्ति वस्तुतः यह समझे बिना अपना जीवन व्यतीत करता है कि यथार्थ में वह क्या है, यह कि यथार्थ में वह आत्मन् है, अर्थात् हमारी आत्माओं में निहित वह दिव्य स्फुलिंग जो ईश्वर का प्रतिबिम्ब है।
अतुल दयाल: एक व्यक्ति योग को अपने जीवन का अभिन्न अंग कैसे बना सकता है?
स्वामी जी : योग को अपने जीवन का एक अंग कैसे बनाया जा सकता है? सर्वप्रथम “योग” शब्द का अर्थ अत्यन्त व्यापक है। लोग योग के भिन्न-भिन्न पक्षों को अपनाते हैं, सम्भवतः शरीर के स्वास्थ्य के लिए, तनावमुक्ति के लिए, किन्हीं अन्य उद्देश्यों के लिए। जब योगदा सत्संग सोसाइटी में हम अपने दैनिक जीवन में योग का अभ्यास करने के विषय में बात करते हैं, और जिसे हमारे महान् गुरु, श्री श्री परमहंस योगानन्दजी, ने सिखाया है, तो मुख्यतः इसका अर्थ होता है हमारी गुरु-परम्परा ने हमें जो ध्यान-प्रणाली दी है, जो सुव्यवस्थित ध्यान प्रविधियाँ उन्होंने प्रदान की है, उसका अभ्यास करना जो हमारे लिए वस्तुतः योग का सार हैं। इन प्रविधियों के द्वारा मन निश्चल होता है और प्राणशक्तियों—शरीर की सूक्ष्म प्राणशक्तियों—पर नियंत्रण प्राप्त होता है और उन सब शक्तियों का प्रयोग मन को एक दिव्य सचेतनता, एक दिव्य चेतना की अवस्था में ले जाने के लिए किया जाता है। इसलिए जब हम कहते हैं, “दैनिक जीवन में योग को कैसे अपना सकते हैं,” तो इसका अर्थ होता है वैज्ञानिक ध्यान का अनुशासित ढंग से दैनिक और निरन्तर अभ्यास करना।
अतुल दयाल: परन्तु मेरे विचार में लोगों को यह अत्यन्त कठिन प्रतीत होता है।
स्वामी जी : हाँ, यह अत्यन्त कठिन है। तो कठिन कौन सा कार्य नहीं है? जीवन कठिन है, जीवन अत्यन्त दुष्कर है। हम स्वयं से यह क्यों नहीं कहते हैं कि, “मैं तो इतना व्यस्त हूँ, इतने दबाव में हूँ, इतना तनावग्रस्त हूँ, कि मेरे पास खाना खाने के लिए समय नहीं है और सोने के लिए समय नहीं है?” जब एक मनुष्य के रूप में आपका ज्ञान परिपक्व होने लगता है तो यही होता है। आप अनुभव करने लगते हैं कि अपनी प्रकृति के आध्यात्मिक पक्ष का पोषण किये बिना आपके जीवन में वस्तुतः सर्वाधिक महत्वपूर्ण वस्तु की कमी रहती है। तब हम कहते हैं, “हाँ, यह कठिन है। मेरे पास इसके लिए समय नहीं है इत्यादि।” आप समय निकाल सकते हैं। कोई भी व्यक्ति समय निकाल सकता है, यदि वह, सर्वप्रथम, इसके महत्व को समझ जाए।

अतुल दयाल:: सही है, क्या योग सबके लिए है?
स्वामी जी : योग आत्मा का विज्ञान है, सबके पास आत्मा है, इसलिए योग सबके लिए है।
अतुल दयाल:: स्वामीजी, शान्ति और आनन्द से पूर्ण जीवन व्यतीत करने में योग कैसे सहायता कर सकता है?
स्वामी जी : ओह, वास्तव में शान्ति और आनन्द से पूर्ण जीवन जीने के लिए योग सर्वाधिक प्रत्यक्ष उपाय है। इसका कारण अत्यन्त सरल है। हमारी आन्तरिक प्रकृति, आत्मन्, हमारा मूलतत्त्व, हमारी आत्मा आनन्द है, शान्ति है, ज्ञान और सुख और अशर्त प्रेम है और योग वह मार्ग है जिसके माध्यम से हम उन्हें प्राप्त कर सकते हैं, जिसके माध्यम से हम अपनी चेतना की खिड़कियों और द्वारों को खोलना सीखते हैं, ताकि जो पहले से ही हमारे अन्दर विद्यमान है — वह शान्ति, वह आनन्द — वह बाह्य रूप से हमारे कार्यों में और दूसरों के साथ हमारे सम्बन्धों में अभिव्यक्त हो सके।
अतुल दयाल: स्वामीजी, योग और प्राणायाम में क्या अन्तर है?
स्वामी जी : कोई भी अन्तर नहीं है। राजयोग के आठ चरणों में से एक चरण प्राणायाम है। जैसा कि ऋषि पतंजलि ने योगसूत्र में सिखाया है, योग, राजयोग ब्रह्म के साथ एकत्व, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में निवास करने वाले अनन्त परमात्मा के साथ एकत्व प्राप्त करने के लिए एक अष्टांग मार्ग है, और उसके आठ चरणों में से एक चरण प्राणायाम है। अष्टांग योग मार्ग नैतिक आचरण से प्रारम्भ होता है, तत्पश्चात् आसन अथवा शरीर का नियन्त्रण, अर्थात् ध्यान के लिए शरीर को उचित मुद्रा में रखना, तत्पश्चात् प्राणायाम आता है। “प्राणायाम” शब्द का क्या अर्थ है? प्राण का अर्थ है प्राणशक्ति, अर्थात् वह चेतन शक्ति जो हमें अचेतन तत्त्व से भिन्न बनाती है। यह शक्ति गर्भाधान के समय शरीर में प्रवेश करती है और मृत्यु के समय शरीर का त्याग कर देती है।
तो “प्राण” का अर्थ है प्राणशक्ति, “आयाम” का अर्थ है नियन्त्रण। प्राणायाम का अर्थ है ध्यान की निर्दिष्ट प्रविधियों का अभ्यास जो उस प्राणशक्ति को निर्देशित और नियन्त्रित करने की सक्षमता प्रदान करती हैं, ताकि हम उसके दास बने रहने के स्थान पर उसके स्वामी बन सकें। आप देखिये, सामान्य लोगों में, जिनका मन सामान्य रूप से बाह्य संसार पर ही केन्द्रित रहता है, प्राण ही सभी इन्द्रियों, मन, और ज्ञान की क्षमताओं का सञ्चालन करता है ताकि वे पूर्ण रूप से भौतिक जगत् पर अपना ध्यान केन्द्रित कर सकें। यह प्राण के प्रवाह के कारण होता है। योग क्या करता है, और विशेष रूप से योगानन्दजी और उनकी गुरु-परम्परा द्वारा प्रदत्त क्रियायोग—जो कि प्राणायाम की एक प्रविधि है—उसके अभ्यास से हमें बहिर्गामी शक्ति पर नियन्त्रण प्राप्त होता है और इस शक्ति का प्रयोग करके उसे मेरुदण्ड और मस्तिष्क में केन्द्रित किया जा सकता है और आध्यात्मिक अनुभूति के दिव्य केन्द्रों को, चक्रों को, ज्ञान के दिव्य केन्द्रों को जाग्रत किया जा सकता है। तथा यह सब कुछ प्राणायाम की सही समझ, और उसके अनुशासित अनवरत प्रयास के द्वारा प्राप्त किया जा सकता है। तत्पश्चात् उच्चतर चरण आते हैं : अन्तर्मुखीकरण अर्थात् प्रत्याहार, एकाग्रता अर्थात् धारणा, ध्यान अर्थात् ध्यान की सच्ची विस्तारित चेतना, और अन्ततः समाधि अर्थात् ब्रह्म के साथ एकत्व। तो आप देखें कि योग के सम्पूर्ण मार्ग में प्राणायाम का स्थान कहाँ पर है।

अतुल दयाल: यदि मैं क्रियायोग के विषय में बात करूँ, तो क्रियायोग क्या है?
स्वामी जी : क्रियायोग वस्तुतः एक आधुनिक अभिव्यक्ति और योग-प्रविधियों की एक प्रणाली है जो राजयोग के अष्टांग मार्ग का प्रयोग करती है और हमें दर्शाती है कि उसे व्यवहार में कैसे लाना है, उसे कैसे ध्यान की दैनिक दिनचर्या और आध्यात्मिक अनुशासन में ढालना है। क्रियायोग प्राणायाम की एक प्रविधि है, यह एक जीवनशैली भी है। यह व्यक्ति की चेतना, व्यक्ति के कार्यकलापों, व्यक्ति के भौतिक एवं आध्यात्मिक लक्ष्यों के आध्यात्मीकरण की प्रणाली है, और सर्वोपरि, यह गहन अन्तर्मुखीकरण और मन को एकाग्र करने और हमारे सामान्य मानसिक पर्यावरण की अस्तव्यस्तता की चंचलता को निश्चल करने का विज्ञान है। अतः अपने अन्तर् में बढ़ती हुई उस स्थिरता में, हम अपने यथार्थ स्वरूप — उस आत्मन्, उस आत्मा—के प्रतिबिम्ब को देखना प्रारम्भ करते हैं!
अतुल दयाल: बहुत अच्छा, ठीक है, अब मैं गुरु के बारे में बात करूँगा। किसी व्यक्ति को यह कैसे पता चलता है कि उसे उसके गुरू मिल गए हैं?
स्वामी जी : किसी व्यक्ति को यह कैसे पता चलता है कि उसे उसके गुरु मिल गए हैं? यह कुछ ऐसा नहीं है जो यूँ ही हो जाता है, जहाँ आप संयोगवश किसी व्यक्ति से टकरा जाते है और कहते हैं, “मैं आपको अपने गुरू के रूप में स्वीकार करता हूँ।” हमें इस विषय में वास्तविकता को स्वीकार करना चाहिए। जैसा कि आप जानते हैं – विशेष रूप से आज के संसार में कई ऐसे लोग हैं जो स्वयं को “गुरु ” कहते हैं। उनमें से कई व्यक्ति योग्य और कई अयोग्य होते हैं। इसलिए, निश्चित रूप से सावधानीपूर्वक खोज करने और अनुभव करने की आवश्यकता होती है। आपको एक ऐसा मार्ग और आध्यात्मिक अनुशासन की ऐसी प्रणाली मिल जाती है जो आपको ठीक लगती है और आप उसका अनुसरण करके देखते हैं कि वह उचित है या नहीं। आप कहते हैं, “मैं आध्यात्मिक रूप से जिसकी खोज कर रहा हूँ क्या इससे मुझे वह प्राप्त हो रहा है।” और आप कुछ समय तक आध्यात्मिकता की उस विशेष शाखा के शिक्षक या प्रमुख या संस्थापक को ध्यान से देखते हैं, और कुछ समय बाद आपको समझ में आता है, “क्या ये एक ऐसे व्यक्ति हैं जिनके ऊपर मुझे निर्विवाद रूप से विश्वास और भरोसा है, मैं स्पष्ट रूप से उनके साथ दिव्य मैत्री के आत्मा के बन्धन का अनुभव करता हूँ? तथा ये सभी विषय अत्यन्त वैयक्तिक हैं और अत्यन्त व्यक्तिगत हैं .. घुमा-फिरा कर लम्बी बात करने के स्थान पर मैं इस प्रश्न का छोटा-सा उत्तर देना चाहूँगा कि, “जब आपको इसका ज्ञान होगा तो आप जान जाएँगे।” परन्तु इसमें जल्दबाजी न करें, जल्दबाजी न करें। वाईएसएस और एसआरएफ़ में हम भक्तों को तब तक हमारे गुरु के औपचारिक शिष्य बनने की अनुमति नहीं देते हैं जब तक कि वे एक प्रारम्भिक अवधि को पूरा नहीं कर लेते हैं जिसके दौरान उन्हें यह परखने का और देखने का समय मिलता है कि क्या यह मार्ग उनके लिए उचित है।
अतुल दयाल: स्वामीजी, एक सामान्य व्यक्ति कैसे सभी व्यक्तियों में ईश्वर के दर्शन करने की अवस्था तक पहुँच सकता है?
स्वामी जी : प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वर के दर्शन करना। कितना सुन्दर विचार है।
अतुल दयाल: मेरे विचार में यह अत्यन्त कठिन है, है या नहीं?
स्वामी जी : हाँ।…है…यह अत्यन्त अद्भुत है। परन्तु आइये हम इसे उचित सन्दर्भ में देखने का प्रयास करते हैं। यह चेतना की अत्यन्त उच्च अवस्था होती है जब आप वस्तुतः प्रत्येक व्यक्ति में, प्रत्येक अन्य व्यक्ति में जिससे आप मिलते हैं, दिव्य स्फुलिंग के प्रति सचेत हो जाते हैं। इसलिए, मैं यह कहूँगा कि इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए धीरे-धीरे, छोटे-छोटे कदम बढाकर आगे बढ़ना चाहिए। पहले लोगों के साथ दयालु होना सीखें, पहले लोगों का सम्मान करना सीखें, पहले लोगों के साथ सद्भावनापूर्ण सम्बन्ध स्थापित करें, तथा यह आपके लिए एक आधार का काम करेगा जहाँ से आप आध्यात्मिक स्तर पर उनके साथ अधिक गहरा सम्बन्ध स्थापित कर सकेंगे, प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान दिव्य स्फुलिंग के साथ अधिक-से-अधिक गहन सम्बन्ध अनुभव कर सकेंगे। परन्तु वास्तव में इस प्रश्न का एक इससे भी अधिक सीधा उत्तर भी है और आप जानते हैं कि वह क्या है। अन्य व्यक्तियों में ईश्वर के दर्शन करने का कोई उपाय नहीं है, जब तक कि हम स्वयं में ईश्वर के दर्शन न कर लें। इसलिए, सर्वप्रथम यह आवश्यक है कि हम ध्यान करें और आनन्द की भावना का, प्रसन्नता की भावना का, और यथार्थ की भावना का अनुभव करें…कि यह ऐसा है…जब हम स्वयं अपने अन्दर उस दिव्यता का अनुभव करते हैं तो स्वतः ही उसका आदर करने लगते हैं और तत्पश्चात् हम सचेतन प्रयास करते हैं और वस्तुतः हमें उतना अधिक प्रयास करने की आवश्यकता भी नहीं होती है क्योंकि वह स्वाभाविक रूप से प्रवाहित होने लगता है। हम अनुभव करते हैं कि जो ब्रह्म मेरे अन्दर विद्यमान है, वही ब्रह्म इस व्यक्ति में, और उ स व्यक्ति में और ईश्वर की सभी सन्तानों में विद्यमान है।
अतुल दयाल: अब मैं आपके बारे में जानना चाहता हूँ। आप योगानन्दजी के सम्पर्क में कैसे आए थे?
स्वामी जी : क्रियायोग के इस मार्ग के साथ मेरा पहला सम्पर्क अपने जीवन के तीसरे दशक के प्रारम्भिक वर्षों में हुआ था जब मैं विश्वविद्यालय में एक युवा छात्र था।
अतुल दयाल: आपकी आयु कितनी थी, 20?
स्वामी जी : जब मैंने योगी कथामृत पुस्तक पढ़ी थी, तब मैं 21 वर्ष का था और उसके बाद मैं इतना मन्त्रमुग्ध हो गया था, मैं उसमें इतना लिप्त हो गया था कि मैंने तुरन्त ही हमारे गुरुदेव द्वारा रचित पाठमाला के लिए पंजीकरण करा लिया था। इस पाठमाला में ध्यान से सम्बन्धित ज्ञान और उसके अभ्यास की जानकारी सम्मिलित है और उसका अध्ययन अपने घर में रहकर ही किया जा सकता है।
अतुल दयाल: इतनी कम आयु में क्या आप आध्यात्मिक इत्यादि विषयों में विश्वास करते थे ?
स्वामी जी : निस्सन्देह नहीं…आप जानते हैं…मुख्य बात यह है…कि हममें से कोई भी इस जीवन में पहली बार नहीं आया है। पुनर्जन्म एक परम सत्य है। वास्तव में, जब मैं प्रारम्भ में इन शिक्षाओं के सम्पर्क में आया था तो मैं इसमें विश्वास नहीं करता था। मैं सोचता था, “यह तो केवल एक काल्पनिक विचार है, यह तो एक अतिशयोक्तिपूर्ण बात है।” परन्तु जैसे-जैसे आप अधिक ध्यान करते हैं, जैसे-जैसे आप वास्तव में उसकी प्राकृतिक सचेतनता में उस आन्तरिक जगत् के साथ सम्पर्क करते हैं, आप अनुभव करते हैं, हाँ, पिछले अनेक जन्मों से मेरा आध्यात्मिक विकास हो रहा था। तथा जैसा योग के महान् शास्त्र श्रीमद्भगवद्गीता में प्रभु श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा है, कि यदि तुम ध्यान का अभ्यास, योग का अभ्यास करते हो किन्तु यदि अपने लक्ष्य तक पहुँचने से पूर्व ही तुम्हारी मृत्यु हो जाती है, तो तुम्हें चिन्ता करने की आवश्यकता नहीं है, क्योंकि तुम वापस आओगे और पुनः वहां से प्रारम्भ करोगे जहाँ पर तुमने पूर्व जन्म में छोड़ा था। और आज हम पूरे संसार में लाखों आत्माओं को भारत के महान् योग विज्ञान में अत्यधिक रुचि लेते हुए, उसके प्रति अत्यधिक चुम्बकीय रूप से आकर्षित होते हुए देख रहे हैं। यह बिना किसी कारण के नहीं हो रहा है, यह इसलिए हो रहा है क्योंकि उन आत्माओं ने पूर्व जन्मों में अपनी यात्रा प्रारम्भ की थी, और निस्संदेह अतीत में मेरा कोई कार्य अधूरा रह गया था।
अतुल दयाल: स्वामीजी, मैं योगी कथामृत के बारे में जानना चाहता हूँ, यह एक चमत्कारपूर्ण पुस्तक है। क्या आप इस पुस्तक के कुछ रोचक पक्षों पर प्रकाश डालना चाहेंगे?
स्वामी जी : हाँ, सर्वप्रथम मैं यह कहना चाहूंगा कि इस योगी कथामृत पुस्तक का स्वयं मेरे हृदय में एक अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि मेरे लिए इसी के माध्यम से ध्यान के मार्ग और क्रियायोग के मार्ग का द्वार खुला था। इस पुस्तक के माध्यम से ही मेरा और सम्पूर्ण विश्व के हज़ारों और लाखों अन्य व्यक्तियों का भी प्रथम परिचय हुआ था। प्रायः जब वे संयोगवश यह पुस्तक पढ़ते हैं, तो उसके माध्यम से ही परमहंस योगानन्दजी की खोज करते हैं, क्रियायोग की खोज करते हैं। यह पुस्तक अद्वितीय है, यह केवल एक पुस्तक ही नहीं है, इसमें गुरु जी के जीवन से सम्बन्धित प्राचीन भारतीय आध्यात्मिक परम्परा के सन्दर्भ में अनेकों निर्देशात्मक दृष्टान्त इत्यादि हैं, …आध्यात्मिकता का परिचय प्राप्त करने के लिए आपको जिस वस्तु की आवश्यकता है, वस्तुतः वह सब कुछ उसमें है। परन्तु उससे भी अधिक महत्वपूर्ण यह है कि यह वस्तुतः एक माध्यम है जहाँ किसी-न-किसी प्रकार से, यद्यपि उसका परिमाण निर्धारित नहीं किया जा सकता है, उसे किसी प्रयोगशाला में मापा नहीं जा सकता है, परन्तु, किसी-न-किसी प्रकार से, इस पुस्तक के पृष्ठों से गुरुदेव की चेतना और स्पन्दन प्रवाहित होते हैं और लोगों को स्पर्श करते हैं, और जब लोग उस पुस्तक को पढ़ते हैं तो उन्हें एक प्रकार के जादू का अनुभव होता है।
अतुल दयाल: स्वामीजी, अन्तिम प्रश्न, वर्तमान तनावपूर्ण जीवन में समाज के लिए क्या सन्देश है?
स्वामी जी : ओह अच्छा, आप जानते हैं कि हमारा आधुनिक जीवन जितना अधिक जटिल है और जितना अधिक तनावपूर्ण और अस्तव्यस्त है, हमें उतना ही अधिक यह अनुभव करने की आवश्यकता है कि ध्यान का अभ्यास जीवन को बनाए रखने का एक अत्यावश्यक कौशल है। केवल भारत में ही नहीं, केवल पाश्चात्य देशों में ही नहीं जहाँ अत्यधिक जटिलता है, अपितु सम्पूर्ण वैश्विक परिवार में, जैसे-जैसे परिष्कृत तकनीकों का विकास हो रहा है और इसके परिणामस्वरूप जटिलताएँ बढ़ती जा रही हैं, तनाव बढ़ता जाता है, बुद्धि और मन और इन्द्रियों के ऊपर निरन्तर आक्रमण बढ़ता जाता है। धीरे-धीरे लोग यह अनुभव करने लगेंगे कि जिस प्रकार से उचित आहार, उचित व्यायाम इत्यादि आवश्यक है, उसी प्रकार से ध्यान भी जीवन को बनाए रखने के लिए एक अत्यावश्यक कौशल है। इसलिए, मैं तो यही कहूंगा कि ध्यान करना सीखें, इसका अभ्यास करें, इसे अपनी दैनिक दिनचर्या में सम्मिलित करें और देखें कि आपके जीवन पर इसका क्या प्रभाव पड़ता है।
अतुल दयाल: स्वामीजी, हमारे साथ बात करने के लिए धन्यवाद। धन्यवाद। हमारे लिए यह एक सम्मान का विषय है। आपका बहुत बहुत धन्यवाद।
स्वामी जी : धन्यवाद, आपसे बात करके आनन्द आया। आपको और आपके सभी पाठकों को मेरी शुभकामनाएँ।