क्या संवैधानिक संस्थाओं से टकराव और तीखी बयानबाज़ी बनी जगदीप धनखड़ का इस्तीफे की वजह?

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Vice President Jagdeep Dhankhar Resigns Mid-Term: भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने कार्यकाल समाप्त होने से पहले ही इस्तीफा दे दिया। न्यायपालिका और संसद के बीच मतभेदों और संवैधानिक टकराव को लेकर उनके बयानों ने उठाए कई सियासी सवाल।

नई दिल्ली: भारत के उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने अपने कार्यकाल के मध्य में ही इस्तीफा दे दिया है, जिससे देश की राजनीति में हलचल मच गई है। 2022 में उपराष्ट्रपति पद संभालने वाले धनखड़ का कार्यकाल 2027 तक निर्धारित था, लेकिन हाल के समय में वे लगातार अपने बयानों और संवैधानिक संस्थाओं के साथ टकराव को लेकर चर्चा में रहे। धनखड़ ने उपराष्ट्रपति रहते हुए कई बार न केवल विपक्षी दलों बल्कि न्यायपालिका के कामकाज पर भी खुलकर सवाल उठाए।

उन्होंने राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग (NJAC) को सुप्रीम कोर्ट द्वारा खारिज किए जाने को “जनता के जनादेश की अनदेखी” बताया था और संसद की सर्वोच्चता पर बल दिया था। 7 दिसंबर को राज्यसभा में दिए गए एक भाषण में उन्होंने दोहराया कि न्यायिक नियुक्तियों का मुद्दा संसद द्वारा ही सुलझाया जाना चाहिए। धनखड़ का यह रवैया उस वक्त सामने आया जब विपक्षी दल न्यायपालिका की स्वतंत्रता और सरकार के हस्तक्षेप के मुद्दे पर चर्चा की मांग कर रहे थे।

उनके बयानों ने तब और भी विवाद खड़ा कर दिया जब उन्होंने जयपुर में आयोजित अखिल भारतीय पीठासीन अधिकारी सम्मेलन में सवाल उठाया कि “क्या हम वाकई एक लोकतांत्रिक राष्ट्र हैं?” उन्होंने संसद की सर्वोच्चता को लोकतंत्र की आधारशिला बताया और अन्य संस्थाओं से अपनी-अपनी सीमाओं में रहने की अपेक्षा जताई। धनखड़ के इस रुख को लेकर विपक्षी दलों ने उन्हें ‘सत्तापक्ष के प्रवक्ता’ के रूप में देखा, वहीं समर्थकों ने इसे एक साहसी संवैधानिक चेतावनी बताया।

इससे पहले जब वे पश्चिम बंगाल के राज्यपाल थे, तब भी मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और राज्य सरकार के साथ उनके तीखे संबंध चर्चा में रहे थे। अब जबकि उनका अचानक इस्तीफा सामने आया है, राजनीतिक गलियारों में इसके पीछे की वजहों को लेकर कई सवाल खड़े हो रहे हैं। क्या यह इस्तीफा किसी आंतरिक दबाव का परिणाम है, या फिर आगे किसी नई राजनीतिक भूमिका की तैयारी का संकेत? यह आने वाले दिनों में स्पष्ट हो सकेगा।

इस घटनाक्रम ने एक बार फिर यह बहस छेड़ दी है कि संवैधानिक पदों पर बैठे अधिकारियों को किस हद तक सार्वजनिक रूप से बयान देने की स्वतंत्रता होनी चाहिए, और इन बयानों का लोकतंत्र के संतुलन पर क्या प्रभाव पड़ता है।

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