
Modi Government
मोदी सरकार (Modi Government) के जातिगत जनगणना के फैसले से कांग्रेस और विपक्षी दलों में हड़कंप मच गया है। जानिए कैसे भाजपा ने एक ज्वलंत मुद्दा विपक्ष से छीना और शुरू हुई ‘क्रेडिट वॉर’।
नई दिल्ली: केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार ने देश में जातिगत जनगणना करवाने का निर्णय लेकर राजनीतिक गलियारों में हलचल मचा दी है। यह निर्णय ऐसे समय आया है, जब कांग्रेस समेत कई विपक्षी दल जातिगत जनगणना को लेकर सरकार पर लगातार दबाव बना रहे थे। अब जब केंद्र ने स्वयं यह कदम उठा लिया है, तो यह मुद्दा विपक्ष के हाथ से निकलता दिख रहा है। नतीजतन, कांग्रेस, राजद समेत तमाम दलों में इस निर्णय का श्रेय लेने की होड़ मच गई है और एक प्रकार की क्रेडिट वार शुरू हो गई है।
विपक्ष में बेचैनी, क्रेडिट की होड़ शुरू
कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल (राजद) जैसे दलों ने अपने-अपने कार्यालयों के बाहर जातिगत जनगणना के समर्थन में पोस्टर लगाकर खुद को इसका ‘जनक’ बताने की कोशिश की है। लेकिन यह पहली बार है जब भाजपा ने इस संवेदनशील सामाजिक मुद्दे को अपने हाथ में लेकर विपक्ष के रणनीतिक मोर्चे को झटका दिया है। आपको बता दें कि बाबासाहेब अंबेडकर और राममनोहर लोहिया जैसे नेता वर्षों से वंचित वर्गों के लिए आवाज उठाते रहे, लेकिन कांग्रेस के शासनकाल में उनके विचारों को हाशिये पर धकेला गया। आरक्षण को भी कांग्रेस ने महज एक उपकार के रूप में पेश किया और उसे वोटबैंक की राजनीति का साधन बना लिया।
इतिहास गवाह: कांग्रेस का टालमटोल रवैया
1931 में आखिरी बार ब्रिटिश शासन में जातिगत जनगणना कराई गई थी। स्वतंत्र भारत में 1951 में पहली जनगणना हुई, लेकिन तब से अब तक किसी भी सरकार ने जातिगत आंकड़ों को सार्वजनिक करने का साहस नहीं दिखाया। खासकर कांग्रेस पर आरोप है कि उसने जानबूझकर इस विषय से दूरी बनाई। राजनीतिक विश्लेषकों के अनुसार, यह एक सोची-समझी रणनीति थी ताकि पिछड़े और वंचित वर्गों को सत्ता में भागीदारी से वंचित रखा जा सके।
मांझी का तंज: 30 साल में क्या कर लिया राजद ने?
केंद्रीय मंत्री जीतनराम मांझी ने राजद और कांग्रेस पर निशाना साधते हुए कहा, “30 साल पहले जब बिहार में राजद का शासन था तब क्यों नहीं जातिगत जनगणना करवाई गई?” मांझी के बयान को भाजपा के इस दावे से जोड़कर देखा जा रहा है कि विपक्ष ने सिर्फ वोटबैंक की राजनीति की, जबकि सामाजिक न्याय के मुद्दे पर कभी ठोस कदम नहीं उठाए।
यूपीए सरकार का अधूरा प्रयास
2010 में तत्कालीन कानून मंत्री वीरप्पा मोइली ने जनगणना में जातिगत आंकड़े शामिल करने की मांग की थी, लेकिन यूपीए सरकार ने इसे खारिज कर दिया। 2011 में मजबूरी में SECC (सामाजिक-आर्थिक और जाति जनगणना) करवाई गई, लेकिन वह मुख्य जनगणना से अलग और अपूर्ण रही। इस प्रक्रिया पर देश का 5,000 करोड़ रुपये खर्च हुआ, लेकिन आंकड़े अब तक सार्वजनिक नहीं किए गए। वहीं दूसरी ओर बात अगर कर्नाटक की करें तो 2015 में कांग्रेस शासित कर्नाटक में एक सामाजिक-आर्थिक और शैक्षिक सर्वे कराया गया था, लेकिन उसकी रिपोर्ट को दबाकर रखा गया। फरवरी 2024 में जब यह रिपोर्ट जारी हुई, तो राज्य के उपमुख्यमंत्री डीके शिवकुमार ने इसे ही खारिज कर दिया। वोक्कालिगा और लिंगायत जैसी प्रभावशाली जातियों की नाराजगी के डर से कांग्रेस पीछे हट गई।
राजनीति में नया समीकरण
केंद्र सरकार के इस फैसले ने विपक्ष को एक बड़े राजनीतिक हथियार से वंचित कर दिया है। भाजपा अब इसे सामाजिक न्याय के प्रति अपनी प्रतिबद्धता के रूप में प्रस्तुत कर रही है। वहीं, विपक्षी दल यह तय नहीं कर पा रहे हैं कि इस पर सरकार का समर्थन करें या फिर किसी तरह इसका श्रेय लेने का प्रयास करें। जातिगत जनगणना जैसे संवेदनशील मुद्दे पर अब राजनीतिक परिप्रेक्ष्य तेजी से बदल रहा है, और आने वाले समय में इसका असर आगामी चुनावों में भी देखने को मिल सकता है।