जस्टिस यशवंत वर्मा कैश कांड में अभी भी ऐसे कई अहम सवाल हैं जिसका अबतक नहीं मिल पाया है जवाब…

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Justice Yashwant Verma cash case: दिल्ली हाईकोर्ट के जज जस्टिस यशवंत वर्मा के सरकारी आवास में नकदी मिलने के मामले में सुप्रीम कोर्ट की जांच रिपोर्ट सामने आई है। लेकिन आग कैसे लगी, पैसा कहां से आया, और अब वो नकदी कहां है – जैसे 5 अहम सवाल अब भी अनुत्तरित हैं।

नई दिल्ली: भारत की न्यायिक प्रणाली के इतिहास में हाल के वर्षों में जस्टिस यशवंत वर्मा से जुड़ा कथित कैश कांड एक अभूतपूर्व विवाद बनकर उभरा है। दिल्ली हाईकोर्ट के तत्कालीन न्यायाधीश जस्टिस वर्मा के सरकारी आवास के स्टोररूम में आग लगने की घटना के बाद जो नोटों के बंडल सामने आए, उन्होंने न सिर्फ न्यायपालिका की साख को झकझोर दिया, बल्कि कई ऐसे सवाल खड़े कर दिए जिनके जवाब अब तक देश की सबसे बड़ी अदालत की निगरानी में हुई जांच से भी नहीं मिल पाए हैं।

सुप्रीम कोर्ट के तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश संजीव खन्ना के निर्देश पर गठित तीन सदस्यीय समिति ने 3 मई को अपनी रिपोर्ट सौंपते हुए कहा कि न्यायमूर्ति वर्मा के विरुद्ध महाभियोग की कार्यवाही शुरू की जानी चाहिए, क्योंकि उन पर लगे आरोपों में पर्याप्त आधार हैं। रिपोर्ट में स्पष्ट कहा गया है कि वर्मा का आचरण सार्वजनिक सेवा की भावना के विरुद्ध था।

कैसे सामने आया कैश कांड?

14 मार्च को जस्टिस वर्मा के दिल्ली स्थित सरकारी आवास के स्टोररूम में आग लगने की सूचना पर फायर ब्रिगेड की टीम वहां पहुंची। आग बुझाने के दौरान अग्निशमन कर्मियों को कथित तौर पर करेंसी के अधजले बंडल मिले। यह घटना तेजी से मीडिया और न्यायिक हलकों में सुर्खियों में आई। वर्मा उस समय दिल्ली से बाहर थे और उन्होंने इस पूरे प्रकरण को साजिश करार दिया। उन्होंने यह भी कहा कि स्टोररूम उनके मुख्य आवास का हिस्सा नहीं था और वहां तक उनके स्टाफ की पहुंच थी। लेकिन सुप्रीम कोर्ट की समिति ने गवाहों के बयानों, सीसीटीवी फुटेज और अन्य इलेक्ट्रॉनिक साक्ष्यों के आधार पर निष्कर्ष निकाला कि वर्मा और उनका परिवार इस स्टोररूम पर अप्रत्यक्ष रूप से नियंत्रण में थे, और उनके स्टाफ ने नकदी को हटाने का प्रयास किया।

अब भी कई ऐसे सवाल हैं जिसके जवाब अभी तक नहीं मिल पाए हैं। जिसमें कि सबसे पहला सवाल ये है कि आखिरकार नकदी कहां से आई? क्योंकि समिति की रिपोर्ट यह स्पष्ट नहीं कर पाई कि स्टोररूम में रखे गए नोटों का स्रोत क्या था। न कोई लेन-देन का रिकॉर्ड, न कोई स्पष्टीकरण – इस सवाल ने पूरे मामले को गहरा बना दिया है। वहीं दूसरा सवाल ये है कि आखिरकार कितनी राशि बरामद हुई? जांच रिपोर्ट में यह भी साफ नहीं किया गया कि नोटों के बंडलों की संख्या कितनी थी या कुल कितनी नकदी मिली थी। इससे यह अंदेशा और भी गहराता है कि कहीं इस मामले को दबाने की कोशिश तो नहीं हो रही। तीसरा सवाल अब ये उठता है कि अब कहां हैं वो अधजले नोट? क्योंकि स्टोररूम से मिली अधजली नकदी को बाद में कहां रखा गया, उसकी स्थिति क्या है, कितने नोटों की हालत ठीक थी – इन सवालों पर भी रिपोर्ट चुप रही। साथ ही यह भी नहीं बताया गया कि नोटों की गिनती क्यों नहीं कराई गई।

इतना बड़ा मामला सामने आने के बावजूद दिल्ली पुलिस ने इस पर FIR दर्ज नहीं की। यह भारतीय लोकतंत्र की पारदर्शिता पर एक बड़ा सवालिया निशान खड़ा करता है। जब एक आम नागरिक पर मामूली आरोप लगते हैं तो जांच तुरंत शुरू होती है, फिर एक उच्च पदस्थ न्यायाधीश के मामले में ये चुप्पी क्यों? आख़िरकार सबसे अहम सवाल – आग कैसे लगी? क्या यह शॉर्ट सर्किट था या जानबूझकर लगाई गई आग? जांच रिपोर्ट में इस बिंदु पर भी कोई निर्णायक टिप्पणी नहीं की गई, जो कि पूरी घटना की जड़ में है।

क्या है अगला कदम?

सुप्रीम कोर्ट की समिति की रिपोर्ट के बाद महाभियोग प्रक्रिया शुरू करने की सिफारिश की गई है। यदि संसद में यह मामला उठता है और आवश्यक समर्थन मिलता है, तो जस्टिस वर्मा को न्यायिक पद से हटाया जा सकता है। इससे पहले भारत के इतिहास में न्यायपालिका के विरुद्ध ऐसे ही मामलों में जस्टिस सौमित्र सेन और पी.डी. दिनाकरण जैसे जज चर्चा में रहे थे।

यह प्रकरण न सिर्फ एक न्यायाधीश की व्यक्तिगत नैतिकता पर सवाल खड़े करता है, बल्कि पूरी न्यायपालिका की पारदर्शिता और जवाबदेही की परीक्षा है। यदि इस केस में निष्पक्ष और पूर्ण पारदर्शिता से कार्रवाई नहीं हुई, तो यह लोगों के न्यायिक व्यवस्था में विश्वास को गहरा नुकसान पहुंचा सकता है। गौरतलब है कि भारत जैसे लोकतांत्रिक देश में न्यायपालिका पर भरोसा अंतिम आसरा होता है। ऐसे में यह जरूरी है कि इस मामले के हर पहलू की निष्पक्ष और सार्वजनिक जांच हो, जिससे जनता को सच्चाई का पता चल सके और न्यायिक प्रणाली की गरिमा बनी रहे।

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