
India IMF
भारत (India) ने पाकिस्तान को आईएमएफ़ (IMF) की एक अरब डॉलर की बेलआउट किश्त पर कड़ा विरोध जताया है। जानिए क्यों भारत ने इसे ‘वैश्विक मूल्यों का मज़ाक’ और ‘आतंकवाद को समर्थन’ कहा।
पिछले सप्ताह अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) ने पाकिस्तान को सात अरब डॉलर के बेलआउट पैकेज की एक अरब डॉलर की दूसरी किश्त जारी करने को मंज़ूरी दी। यह निर्णय ऐसे समय में आया जब भारत और पाकिस्तान के बीच हाल ही में सीमा पर तनाव चरम पर था और दस मई को ही दोनों देशों के बीच संघर्षविराम की घोषणा हुई थी। भारत ने इस निर्णय पर तीव्र आपत्ति जताई है और आईएमएफ़ की प्रक्रिया पर सवाल खड़े किए हैं। नई दिल्ली का कहना है कि इस बेलआउट का उपयोग पाकिस्तान द्वारा सीमापार आतंकवाद को बढ़ावा देने में हो सकता है — एक आरोप जिसे इस्लामाबाद वर्षों से खारिज करता आया है।
भारत ने स्पष्ट शब्दों में कहा कि आईएमएफ़ का यह कदम उसकी और उसके डोनर्स की प्रतिष्ठा को खतरे में डालता है और यह वैश्विक मूल्यों की उपेक्षा है। भारत ने पाकिस्तान के “खराब ट्रैक रिकॉर्ड” की ओर इशारा करते हुए यह भी पूछा कि बार-बार बेलआउट देने के बावजूद पाकिस्तान में अब तक कोई संरचनात्मक सुधार क्यों नहीं हुआ। यह पहली बार नहीं है जब पाकिस्तान आईएमएफ़ की सहायता ले रहा हो। 1958 से अब तक वह 24 बार बेलआउट पैकेज प्राप्त कर चुका है, और प्रत्येक बार सुधार की बजाय संकट की पुनरावृत्ति ही देखने को मिली है।
अमेरिका में पाकिस्तान के पूर्व राजदूत हुसैन हक़्क़ानी ने कहा, “आईएमएफ़ में जाना आईसीयू में जाने जैसा है। अगर कोई मरीज 24 बार आईसीयू में जाता है, तो यह दर्शाता है कि बीमारी का मूल कारण दूर नहीं किया गया है।” हालांकि, कई विशेषज्ञ मानते हैं कि भारत का विरोध राजनीतिक और कूटनीतिक संदेश देने के उद्देश्य से था, न कि वास्तव में किश्त को रोकने की रणनीतिक कोशिश। भारत ने खुद स्वीकार किया कि यह मामला मुख्यतः आईएमएफ़ की प्रक्रिया और तकनीकी औपचारिकताओं से जुड़ा है, जहां भारत का हस्तक्षेप सीमित था।
इस बीच, आईएमएफ़ ने संकेत दिया है कि पाकिस्तान को भविष्य में 1.4 अरब डॉलर की अगली किश्त भी मिल सकती है, बशर्ते वह अपने आर्थिक सुधार कार्यक्रम को जारी रखे। यह पूरी स्थिति एक बार फिर वैश्विक संस्थाओं की भूमिका, पारदर्शिता और जवाबदेही पर सवाल उठाती है — क्या सिर्फ आंकड़ों और प्रक्रियाओं के आधार पर सहायता देना पर्याप्त है, या फिर दीर्घकालिक नीतिगत सुधारों की ईमानदार समीक्षा भी होनी चाहिए?