
Indus water agreement
जानिए सिंधु जल समझौते (Indus water agreement) का पूरा इतिहास, भारत-पाक के बीच जल विवाद की प्रमुख घटनाएं, जल बंटवारे का विश्लेषण, और विशेषज्ञों की राय—एक इंटरेक्टिव रिपोर्ट में।
1960 में हस्ताक्षरित सिंधु जल समझौता भारत और पाकिस्तान के बीच उस दौर का एक दुर्लभ उदाहरण था, जब दो पड़ोसी युद्धों और संघर्षों के बावजूद जल संसाधनों को साझा करने पर सहमत हुए। लेकिन अब 65 साल बाद, यह संधि अपनी प्रासंगिकता और न्यायसंगतता को लेकर सवालों के घेरे में है। हाल ही में पहलगाम आतंकी हमले के बाद भारत द्वारा इस समझौते को रोकने का संकेत देना कोई मामूली कूटनीतिक कदम नहीं, बल्कि एक रणनीतिक चेतावनी है।
इस समझौते के तहत भारत को पूर्वी नदियों—रावी, व्यास और सतलज—का जल उपयोग करने का अधिकार है, जबकि पाकिस्तान को सिंधु, झेलम और चिनाब नदियों पर प्राथमिकता दी गई। आंकड़ों के अनुसार, भारत को केवल 20% पानी मिलता है जबकि पाकिस्तान को 80%—यह असमान बंटवारा वर्षों से विवाद का कारण बना हुआ है।

भारत की ओर से जब किशनगंगा हाइड्रोइलेक्ट्रिक परियोजना शुरू की गई, तो पाकिस्तान ने यह कहकर विरोध किया कि इससे सिंधु जल समझौते का उल्लंघन होता है। जबकि भारत ने परियोजना को “रन ऑफ द रिवर” तकनीक पर आधारित बताते हुए कहा कि इसमें जल का संग्रहण नहीं होता, केवल प्रवाह को नियंत्रित किया जाता है। बावजूद इसके, पाकिस्तान ने अंतरराष्ट्रीय मध्यस्थता का सहारा लिया, जिससे यह स्पष्ट होता है कि समझौते का हर शब्द अब एक कूटनीतिक हथियार बन चुका है।

जल नीति विशेषज्ञों की मानें तो, यह संधि 1960 की परिस्थितियों के अनुरूप थी, पर आज की भारत-पाक संबंधों की हकीकत बदल चुकी है। भारत को जल संसाधनों का न्यायसंगत उपयोग करने का पूरा हक है। इसके अलावा भारत के पास यह अधिकार है कि वह संधि की समीक्षा करे, लेकिन उसे अंतरराष्ट्रीय नियमों का ध्यान भी रखना होगा, ताकि वैश्विक मंच पर उसकी छवि बनी रहे। वहीं विशेषज्ञों का ये भी मानना है कि पाकिस्तान पानी को भी रणनीतिक हथियार की तरह इस्तेमाल करता रहा है। भारत की यह प्रतिक्रिया लंबे समय से लंबित थी। अब समय है कि हम ‘सॉफ्ट पावर’ को कड़ाई के साथ लागू करें।
भारत की आपत्ति यह है कि पाकिस्तान एक ओर आतंकवाद को शह देता है, दूसरी ओर सिंधु जल संधि जैसे संवेदनशील समझौतों का लाभ भी उठाना चाहता है। अब जब भारत ने इस समझौते को रोकने का कदम उठाया है, तो यह केवल एक प्रतिक्रिया नहीं, बल्कि भविष्य की नीति की झलक है।
यह सवाल उठना लाज़मी है—क्या भारत अब अपनी जल नीति को पुनर्परिभाषित करेगा? क्या पाकिस्तान के साथ किसी भी समझौते को तब तक मान्यता मिलनी चाहिए जब तक वह आतंकवाद और द्विपक्षीय संबंधों में सुधार नहीं करता? आज जब जल संकट वैश्विक चिंता बन चुका है, तब भारत को भी यह तय करना होगा कि क्या वह अपने संसाधनों का उपयोग राजनयिक दबाव के साधन के रूप में करेगा या फिर पुराने समझौतों की पुनर्समीक्षा कर उन्हें वर्तमान संदर्भों के अनुकूल बनाएगा।